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समान संहिता या सियासत?

देश में समान नागरिक संहिता हो, यह अपेक्षा अपने-आप में उचित है। लेकिन ऐसी अपेक्षाओं का इस्तेमाल फौरी सियासी फायदे के लिए किया जाए, यह वाजिब नहीं है। इसलिए बेहतर होगा कि सरकारें पहले आम-सहमति से तैयार करें, ताकि उनके इरादे पर सवाल ना उठें।
उत्तराखंड समान नागरिक संहिता लागू करने वाला देश का पहला राज्य बनने जा रहा है। समान नागरिक संहिता लागू करना भारतीय जनता पार्टी के बुनियादी एजेंडे का हिस्सा रहा है। इसलिए इसमें कोई असामान्य बात नहीं है कि कोई भाजपा सरकार इसे लागू करने की दिशा में बढ़े। लेकिन मुद्दा प्रस्तावित संहिता के समान होने का है। समान संहिता का सीधा अर्थ यह है कि यह देश के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू होगी, चाहे वे किसी मजहब, जाति या समुदाय से संबंधित हों। इस कसौटी को ध्यान में रखें, तो उत्तराखंड की पहल समस्याग्रस्त नजर आती है, क्योंकि राज्य के आदिवासी समुदायों को इससे बाहर रखने का फैसला किया गया है। क्यों और इसका क्या तर्क है? अगर कथित समान संहिता लागू होने के बाद भी आदिवासी समुदायों को अपनी परंपरा और मान्यताओं के मुताबिक जीने की छूट बनी रहेगी, तो यही सुविधा अन्य समुदायों को क्यों नहीं मिलनी चाहिए? इस बिंदु पर कर उत्तराखंड की संहिता एक स्पष्ट सोच या सही इरादे पर आधारित पहल लगने के बजाय फौरी राजनीतिक फायदे के मकसद से की गई पहल मालूम पडऩे लगती है।

इससे यह धारणा गहराती है कि इसके पीछे इरादा महजबी आधार पर ध्रुवीकरण को मजबूती देना है, ताकि भाजपा के समर्थक चुनावों में पार्टी को विजयी बनाने के लिए उत्साहित बने रहें। खबरों के मुताबिक नई नागरिक संहिता के लागू होने के बाद राज्य में बहु-विवाह, इद्दत, हलाला आदि जैसी प्रथाओं पर रोक लग जाएगी। लिवइन रिलेशनशिप में रहने वाले जोड़ों के लिए पुलिस में रजिस्ट्रेशन कराना जरूरी हो जाएगा। बाल विवाह पर भी रोक लगाने की बात इसमें शामिल की गई है, लेकिन यह कोई नई पहल नहीं है। बल्कि सवाल तो यह उठेगा कि इस सिलसिले में पहले से लागू कानून पर अमल सुनिश्चित कराने में भाजपा सरकार ने कितनी दिलचस्पी ली है? देश में समान नागरिक संहिता हो, यह अपेक्षा अपने-आप में उचित है। लेकिन ऐसी अपेक्षाओं का इस्तेमाल फौरी सियासी फायदे के लिए किया जाए, यह उचित नहीं है। इसलिए बेहतर होगा कि सरकारें पहले आम-सहमति से तैयार करें, ताकि उनके इरादे पर सवाल ना उठें।

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